मृत्युंजय कर्ण - छाया नाट्य
महाभारत के कर्ण से सभी परिचित हैं | उसके चरित्र की उदात्तता, जीवन का अकेलापन, विडंबनाएं जन सामान्य को आकर्षित करती रही हैं |माता के स्नेह से वंचित, सतत उपेक्षित और अपमानजनित कर्ण जीवन भर उस दंड को भोगता रहा जिस में उसका कोई दोष ही नहीं था | कदम-कदम पर उसकी जातिगत श्रेष्ठता का प्रमाण मांगा गया। उसकी वीरता और पराक्रम, जाति और कुल की पहचान में कहीं लुप्त हो गया | कर्ण का जीवन यह बताता है कि व्यक्ति की पहचान का आधार उसका व्यक्तित्व होता है न कि जाति,कुल या उसका वंश, संसार में वह अपने कमों से अपनी पहचान स्थापित करता है | कर्ण ने अपनी दानवीरता से, अपने कवि और कुंडल का दान कर मृत्यु को भी जीत लिया था, इसलिए वह मृत्युंजय कर्ण कहलाया ।
‘मृत्युंजय कर्ण - छाया नाट्य’ --- राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के खंड काव्य ‘रश्मीरथी’ पर आधारित है ।
नृत्य- (Sober n Subtle with Song— कोई भी गीत लिया जा सकता है जो कर्ण के जीवन की व्यथा पर आधारित हो)
(मंच के बीचोंबीच एक सफेद पर्दा लगाया जाए ताकि उसके माध्यम से एक ओर छाया नाटक प्रस्तुत किया जा सके तो दूसरी ओर प्रोजेक्टर की आवश्यकता होने पर उस परदे पर प्रसंग के अनुसार कोई चित्र/स्लाइड दिखाई जा सके)
पहला दृश्य
तर्पण का दृश्य
(इस दृश्य के लिए परदे पर प्रोजेक्टर के माध्यम से नदी की लहरों की स्लाइड दिखाई जाए और पात्र (पांडव ,कृष्ण और माता कुंती) परदे के आगे अभिनय करें।
महाभारत के युद्ध के पश्चात मृतकों का तर्पण करने के बाद—--
युधिष्ठिर (माता कुंती से) —सभी के लिए तर्पण की क्रिया हो चुकी है, आइए माँ लौट चलें । कुंती - (शोक और संकोच में डूबी हुई कृष्ण की ओर देखती हैं )
कृष्ण - अभी रुको, एक का तर्पण शेष है|
(युधिष्ठिर)--- वासुदेव, कौन शेष है?
कृष्ण -------------- कर्ण
युधिष्ठिर -------कर्ण , वह सूत ..
कृष्ण ------------ वह सूत पुत्र नहीं, वीर योद्धा कौंतेय है|
पांडव ---------- क्या?
(सभी के चेहरे आश्चर्य , शोक और विषाद से भर उठे)
पांचों पांडव माता कुंती की ओर देखते हैं और माँ व्यथा से भर कर्ण के जन्म की कथा सुनाती है।
(पात्रों का स्थिर होना ,कविता के रूप में दी गई कुंती की कथा का नाटकीय रूपांतरण परदे के पीछे से,कविता की प्रस्तुती गीत के माध्यम से भी दी जा सकती है)
कुंतीभोज की राजकुमारी,जो थी कोमल, था निर्मल मन
सेवा,भक्ति से भरा था अंतर, ज्ञान ही था उसका धन
ऋषि दुर्वासा महल पधारे,कुंती ने की उनकी सेवा,
पाया वरदानों का मेवा, पाँच मिले वरदान अनोखे,पुत्र मिलेंगे सब देवों से,
भोली कुंती ,मन में जिज्ञासा, सूर्य को इक दिन पुकारा,
वरदानों की कैसी परिभाषा, सूर्यदेव स्वयं प्रकट हुए लेकर अपना उजियारा
गोद में आया इक नन्हा बालक, बिन ब्याही माँ बनकर डरकर
कुंती ने ममता को दबाया, बालक को गंगा में बहाया
(पांडव कर्ण के तर्पण के उपरांत शोक मग्न बैठे हुए और मंच की लाइट के बंद होते ही उनका प्रस्थान)
(मंच की लाइट आने पर )
इस दृश्य में परदे के पीछे से लाइट डालने पर छाया का आभास कि
कर्ण की आत्मा नदी की धारा से आगे आती है और ---- (परदे के आगे से)
(कर्ण ) - कौन हूँ मैं -----कौंतेय या राधेय ? कुरुवंशी या सूतपुत्र ?
आज मेरे तर्पण की बात सुनकर पांडवों का चेहरा शोक,और पश्चाताप से भर उठा, क्यों?
पांडवों ने मेरे शौर्य और वीरता को कभी न पहचाना और बार बार मुझे सूतपुत्र कहकर अपमानित किया ।
कृष्ण वासुदेव ने महाभारत के युद्ध के समय कहा था, कि यह शरीर नश्वर है और आत्मा अजर और अमर है , किंतु मृत्यु के बाद भी मेरी आत्मा व्याकुल क्यों है ? शरीर की मृत्यु तो अब हुई है, परन्तु मेरा हृदय हर बार कटु शब्दों के बाणों से बिंध कर मरता रहा |
मुझे आज भी याद है जब रंगभूमि में युद्ध के प्रदर्शन का आयोजन हो रहा था
इस दृश्य में एक नृत्य-गीत ---(सूर्यपुत्र कर्ण परशुराम शिष्य----) पर आधारित लिया जा सकता है
कर्ण - अर्जुन को ललकारने का साहस केवल मुझ में था | परंतु रंगभूमि में मुझे सूतपुत्र कहकर वीरता के प्रदर्शन से इनकार कर दिया कि शौर्य दिखाने का अवसर केवल कुरु वंश के कुमारों को हैं, क्या साहस और पराक्रम की कोई जाति होती है?
कर्ण - नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?
मगर मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।
कर्ण - पूछो मेरी जाति शक्ति हो तो मेरे भुजबल से
रवि समाज दीपित ललाट से और कवच कुंडल से
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझ में तेज प्रकाश
मेरे रोम रोम में अंकित है मेरा इतिहास
कथा वाचक-- किंतु सभा में केवल राजपुत्रों की ही बात चल रही थी, न्याय क्या है ? धर्म या जाति क्या है ? किसी को भी इसकी चिंता नहीं थी लेकिन तभी दुर्योधन आगे आया
(दुर्योधन)- बड़ा पाप है करना, इस प्रकार अपमान
उस नर का जो दीप रहा है सचमुच सूर्य समान
कर्ण भले ही सूतपुत्र हो अथवा श्वपच चमार
मलिन मगर इसके आगे हैं सारे राजकुमार
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार
तो मेरी ये खुली घोषणा सुने सकल संसार
अंग देश का मुकुट कर्ण के माथे पर धरता हूँ
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ
(कर्ण )- उस रंगभूमि में दुर्योधन के अतिरिक्त कौन था जिसने जाति और कुल से ऊपर विचार किया हो, ऐसे मित्र को पाकर मैं अभिभूत हो गया, उसी पल मैंने सोच लिया कि जीवन के अंतिम क्षणों तक मैं दुर्योधन के साथ मित्रता का निर्वाह करूंगा और मैंने किया भी| इतना ही नहीं शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी मुझे संघर्ष करना पड़ा,
गुरु द्रोण ने जब मुझे शिक्षा देने से मना किया तो मुझे झूठ का सहारा लेना पड़ा, गुरु
परशुराम के पास जब मैं शस्त्र शिक्षा के लिए गया, पर एक घटना से सब कुछ बदल गया |
(कथा वाचक द्वारा मंच के पीछे से इन पंक्तियों को बोलना और साथ ही कर्ण और परशुराम द्वारा परदे के पीछे से अभिनय प्रस्तुती)
गुरु को लिए चिंतन में था जब मग्न अचल बैठा
तभी एक विष कीट कहीं से आसन के नीचे बैठा
किन्तु पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती
सहम गई यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विह्वल छाती
किन्तु, लहू की गर्म धार जो सहसा आन लगी तन में
परशुराम जग पड़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में
दांत पीस, आँखे तरेरकर बोले-कौन छली है तू ?
ब्राह्मण है या, किसी अभिजन का पुत्रबली है तू ?
सूतपुत्र मैं शुद्र कर्ण हूँ करुणा का अभिलाषी हूँ
जो भी हूँ पर देव, आपका अनुचर, अंतेवासी हूँ
परशुराम ने कहा, कर्ण यह श्राप अटल है, सहन करो
सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आएगा
हैं यह मेरा श्राप, समय पर उसे भूल जायेगा |
कर्ण - (क्षोभ और निराशा से) और वही हुआ, महाभारत के युद्ध में जब मुझे इसकी आवशकता थी, मैं इसका प्रयोग नहीं कर पाया|
कर्ण--- दुर्योधन के साथ संधि के समय वासुदेव मुझसे मिलने आए और उन्होंने मुझे मेरे जन्म की कथा सुनाई और दुर्योधन का साथ छोड़ने की बात समझायी , किन्तु यह तो अधर्म है, जब उसे मेरे साथ की आवश्यकता है, तब मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूँ?
(कृष्ण)- (कर्ण को समझाते हुए)-
कुंती का तू तनय ज्येष्ठ
बल,बुद्धि,शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम
तेरा अभिषेक करेंगे हम
खोए पुत्र को पाएगी ,
कुंती फूली न समायेगी
रण अनायास रुक जाएगा
कुरुराज स्वयं ही झुक जाएगा
(कर्ण)- (कृष्ण को उत्तर देते हुए) -
हे कृष्ण! आप चुप ही रहिए,
इस पर न अधिक कुछ भी कहिए
जब रोज अनादर पाता था, कह शूद्र पुकारा जाता था
पत्थर की छाती फटी नहीं। कुंती तब भी तो कटी नही।
छिपकर भी तो सुधि ले न सकी, छाया अञ्चल की दे न सकी|
राधा को छोड़ भजूँ किसको जननी है वही तजूँ किसको ?
धूल में था मैं पड़ा हुआ, किसका स्नेह पाकर बड़ा हुआ
जिसने मुझ को सम्मान दिया नृपता दे महिमावान किया
भीतर जब टूट चुका था मन, आ गया अचानक दुर्योधन
रंक से राजा बनाकरके यश मान मुकुट पहनाकर के मुझ को नवजीवन दिया उसने केशव, उसे मैं नहीं छोडूंगा दुर्योधन को धोखा ना दूंगा
सम्राट बनेंगे धर्मराज या पाएगा कुरुराज ताज
लड़ना भर मेरा काम रहा दुर्योधन का संग्राम रहा
मुझको न कहीं कुछ पाना है, केवल ऋण मात्र चुकाना है
(कृष्ण)- तुम्हारे दृढ़ विचारों को मैं समझ गया हूँ,
हे वीर, शत बार धन्य,तुझ सा न मित्र कोई अनन्य
कर्ण –(स्वयं से ) वासुदेव के बाद माता कुंती भी मुझसे मिलने आईं थीं
आज मृत्यु के बाद भी मैं इस बात को समझ नही पाया कि माँ कुंती मुझसे मिलने आई थीं? कुरुवंश के विनाश को रोकने आई थीं या अर्जुन की रक्षा के लिए वचन लेने ?
(कुछ क्षण सोचकर) पर मेरे द्वार पर आए को मैं कैसे रिक्त हाथ विदा करता ?
(कुंती और कर्ण की भेंट का दृश्य)
(कथावाचक)- आहट पाकर जब ध्यान कर्ण ने खोला
कुंती को सन्मुख देख विनय हो बोला|
(कर्ण) -राधा का सुत मैं, देवी नमन करता हूँ
हैं आप कौन ? किसलिए यहाँ आई हैं ?
मेरे निम्मित आदेश कौन लाई ?
(कथावाचक) सुन गिरा गूढ़ कुंती का धीरज छूटा
भीतर का कलेष अपार अश्रु बन फूटा
( कुंती) राधा का सुत नहीं, तनय मेरा है
जो धर्मराज का वही वंश तेरा है
कर्ण बात सुन जो कहने आई हूँ
आदेश नहीं प्रार्थना साथ लाई हूँ
पांड्वो के विरुद्ध हो लड़ तू
मत उन्हें मार, या उनके हाथ मर तू
(कर्ण) मैं खूब समझता हूँ कि नीति यह क्या हैं !!!!!
असमय में जन्मी हुई प्रीती यह क्या है !!!!!
(कथावाचक) राधे मौन हो रहा निज कहके
आँखों से झरने लगे अश्रु बह-बह के
(कर्ण) मैं एक कर्ण अतएव मांग लेता हूँ
बदले में तुमको चार कर्ण देता हूँ
छोडूंगा मैं तो कभी नहीं अर्जुन को
पर, अन्य पांडवों पर मैं कृपा करूँगा
पाकर भी उनका जीवन नहीं हरूँगा
(निराश होकर माँ कुंती का प्रस्थान)
कर्ण ---जीवन में हर बार मैं छला गया और अपनों से भी और परायों से भी
माता कुंती के बाद इंद्रदेव भी अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा के लिए एक भिक्षुक के रूप में आए | पुत्र प्रेम ने उन्हें भिक्षा माँगने के लिए विवश कर दिया|
(कर्ण और इंद्रदेव, जो एक याचक के रूप में आते हैं,उनकी भेंट का दृश्य)
(कथा वाचक )
रवि पूजन के समय सामने जो याचक आता था
मुँहमाँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था |
(कर्ण ) कौन उधर है ? बंधू सामने आओ
मैं प्रस्तुत हो चुका स्वस्थ हो निज आदेश सुनाओ
(इंद्र) कहीं आप दे सकें जो कुछ मैं धन मांगूंगा
मैं तो भला किसी विधि अपनी अभिलाषा त्यागूँगा
(कर्ण) भला कौन सी वस्तु आप मुझ नश्वर से मांगेंगे
जिसे नहीं पाकर निराश हो अभिलाषा त्यागेंगे ?
(इंद्र) देना हो तो मुझे कृपा कर कवच और कुंडल दे दें
(कर्ण) समझा! तो यह और न कोई आप स्वयं सुरपति हैं
देने को आए प्रसन्न हो तप में नई प्रगति है
फिर भी देवराज भिक्षुक बनकर यदि हाथ पसारे
जो भी हो पर इस सुयोग को हम क्यों अशुभ विचारे
भुज को छोङ न मुझे सहारा किसी और संबल का
बङा भरोसा था , लेकिन , इस कवच और कुण्डल का
पर, उनसे था आज दूर सम्बन्ध किए लेता हूँ ,
देवराज लीजिये खुशी से महादान देता हूँ
(करुण और मार्मिकता से भरा संगीत\धुन )--------यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छीली क्षण भर में,
कवच और कुण्डल उतार , धर दिया इन्द्र के कर में—- यह दृश्य परदे के आगे कर्ण द्वारा
कर्ण --- जीवन भर मैं अपनों द्वारा छला गया पर मुझे सम्मान और हौंसला दिया तो माँ राधा ने और मेरी अर्धांगिनी वृषाली ने
(कर्ण की पत्नी वृषाली का परदे के पीछे आगमन )
(कर्ण) -ओह वृषाली , तुमने सदा मेरा साथ दिया , हर विपदा में , हर दुविधा में तुमने मुझे सही रास्ता दिखाया
द्रौपदी स्वयंबर के समय जब उसने सूतपुत्र कहकर अपमानित किया और कहा कि वह सूतपुत्र से विवाह नहीं करेगी ,वे शब्द किसी सर्प के दंश से कम न थे, तुमने कुछ पूछा नहीं और अपमान और क्रोध से युक्त मेरे चेहरे को देखकर सब कुछ समझ गई और मुझे शांत करने हेतु कहा था-
वृषाली— जहां शौर्य और वीरता का स्थान कुल, परिवार ने ले लिया हो, वहाँ से विदा ले लेना ही उचित था| स्वामी, आप शांत रहें |
कर्ण – तुम सही कह रही हो वृषाली | जाति-कुल अथवा सुंदरता का अभिमान कभी-कभी व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है|
वृषाली- मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे आप पति के रूप में मिले |
कर्ण--द्रौपदी के चीर हरण की घटना सुनकर, कौरवों की सभा में एक नारी के अपमान की घटना सुनकर तुम मौन ही रह गई , न जाने किस दंश की पीड़ा ने मुझे व्यथित किया था कि मेरे मुख से वे अपशब्द निकले जो जीवन में कभी किसी नारी के लिए नहीं निकले , मेरी आत्मग्लानि को तुमने भांप लिया | वृषाली इन क्षणों में मैं तुमसे केवल क्षमा ही माँग सकता हूँ |
फिर से तर्पण का दृश्य- (पांडव ,कृष्ण और माता कुंती)
कृष्ण- महाभारत के युद्ध में पांडवों की विजय हुई है पर हार तो सबकी हुई है,
हार हुई है विश्वास की, संबंधों की, हार हुई है रिश्तों की |
युधिष्ठिर- वासुदेव आपने उचित ही कहा है, आज मैं पांडवों की और से ज्येष्ठ कौंतेय कर्ण, कुरुवंशी कुमारों और अन्य योद्धाओं को नमन करते हुए क्षमा माँगता हूँ |
(पाण्डवों,माता कुंती और कृष्ण का प्रस्थान)
कर्ण- मेरे जीवन की नियति कैसी भी रही हो, पर इन क्षणों में मेरे मन में किसी के प्रति कटुता नहीं है, मैं मान -अपमान, वर्ण-जाति-कुल के बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष चाहता हूँ, वासुदेव ने मेरा दाह-संस्कार किया था पर आज पांडवों ने मेरा तर्पण कर मुझे मुक्ति प्रदान की —(कर्ण की आत्मा का नदी धारा में विलीन हो जाना)
कथावाचक-
धर्म,अधर्म के महायुद्ध में, बनकर मित्र वह खड़ा रहा
जीत धर्म की निश्चित है, फिर भी मित्र धर्म पर अड़ा रहा
छल,श्राप, अपमान सहन कर कुरुक्षेत्र में लड़ता रहा
अपनों से, अपने आप से, अपनों के लिए कर्ण हमेशा लड़ता रहा
धर्म से बढ़कर जिसने कर्तव्य को माना था,
दुनिया ने उसे राधेय कर्ण के नाम से जाना था,
छटा पांडव बनना शायद उसकी नियति नहीं थी,पर
इन्द्र ने भी सिर झुकाया था, कृष्ण ने मुखाग्नि दी थी
कर्म से वह मृत्युंजय कहलाया, दानवीर कर्ण कहलाया था |
(अंत में महाभारत–महाभारत की धुन)
नाटक की समाप्ति|